ये रिश्ता क्या कहलाता है …?
कौशल किशोर चतुर्वेदी
राजधानी में एक जाने माने बिल्डर के यहाँ पड़े आयकर छापे के बाद राजनीतिक गलियारों से होते हुए यह शब्द कानों में गूंज रहे हैं कि ये रिश्ता क्या कहलाता है…?
दरअसल यह कोई पहली दफ़ा नहीं है जब आयकर छापे के बाद इस तरह के ख़ुलासे हुए हों कि आरोपी के राजनेताओं से और नौकरशाहों से क़रीबी रिश्ते हैं। आयकर का हर छापा पर्दे के पीछे क़रीब रहने वाले ऐसे चेहरों को समय समय पर बेनक़ाब करने की कोशिश करता रहता है। पर ये कहानियां समय निकलते ही अतीत के अंधेरों में खो जाती हैं…।और ऐसे ही दूसरे रिश्तों का मायाजाल इसी दौरान जवान होने लगता है…। ख़ास बात यह है कि जिन पर छापा पड़ता है उनके लिए अब यह आम बात हो गई है। क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या नौकरशाह, क्या अखिल भारतीय सेवा के अफ़सर, क्या राज्य सेवाओं के अफ़सर या सामान्य कर्मचारी पटवारी, पंचायत सचिव वगैरह, वगैरह …।जब जिसको जहाँ मौक़ा मिलता है वही कुबेर बनने के रास्ते पर आगे बढ़ जाता है। धन का स्रोत क्या है ?गोरा है या काला है, सुंदर है या कुरूप है, लंबा है या ठिनगा है, मीठा है या खारा है…ऐसी फ़िज़ूल बातें लक्ष्मी का स्पर्श करने वाले लोगों के दिमाग़ नहीं सोचते। यह लोग लक्ष्मी का स्पर्श होते ही सुंदर, विलुप्तप्राय उल्लू की तरह व्यवहार करने लगते हैं। क्या उन्हें यह पता ही नहीं चलता कि दिन में अगर उनकी आंखें माया के आग़ोश में आने के बाद अंधी हो जाती हैं, तब भी करोड़ों आँखें उन्हें हर समय देखती रहती हैं। ज़मीन पर रैंगने से लेकर आसमान में लंबी उड़ान भरने वाले यह उल्लू क्या अपनी से पहली वाली कहानियों से कोई सीख भी नहीं लेते। हर समय रिश्तों की उड़ान प्रदेश के मुखिया के गिरेबान तक झांकती है।तो कभी ये रिश्ते मंत्रियों और नौकरशाहों को चूमते नज़र आते हैं। पर समय के साथ आरोपों से घिरे ऐसे चेहरे ही मुख्यधारा में पहले से ज़्यादा खिले खिले और निखरे-निखरे दिखाई देते हैं। यहाँ पर ख़ास तौर से हम किसी का नाम लेना इसलिए ज़रूरी नहीं समझ रहे हैं क्योंकि सवाल यह सामने आता है कि किसका नाम न लिखें? आख़िर जिसका नाम सामने आ गया वह चोर है और जिसका नाम सामने नहीं आया उसका इज़्ज़तदार बने रहने का सिलसिला जारी है…।तब तक जब तक कोई सरकारी एजेंसी उसको बेनक़ाब करने पर आमादा नहीं होती।
आख़िर क्या हो गया है हमारे देश को। यहाँ ज़ुबान पर हमेशा प्रवचन का मुखौटा लगाकर ‘पूत कपूत तो क्या धन संचय और पूत सपूत तो क्या धन संचय’ जैसे जुमलों का राग अलापा जाता है तो सारा जीवन काले कारनामे कर धन संचय करने में ही समर्पित करने से लोग बाज़ नहीं आ रहे हैं। नेता हों, नौकरशाह हों, व्यवसायी हों या फिर दादा भाई हों … काले कारनामों से दिन के उजालों में झोपड़ी से महलों तक का सफ़र तय करने वाली हर कहानी के पीछे यही सच्चाई है। यही कड़वी सच्चाई जो राष्ट्र को खोखला कर रही है और राष्ट्र भक्ति का ढोंग रच रही है। गरीबों के सीने में खंजर घौंपने वाले देश के असली गुनहगार यही कुबेर हैं जो काली सफ़ेद बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बेशर्मों की तरह फ़र्राटे भरते रहते हैं और समझते हैं कि दुनिया में उनसे बड़े ख़ुशनसीब कोई और नहीं हैं। पर वक़्त किसी का सगा नहीं होता और काले कारनामों की कालिख कभी न कभी इनका मुँह काला कर ही देती है। यह बात और है कि सीख लेने का कोई मौक़ा इन्हें नहीं मिलता और यह अपने कालिख पुते चेहरे में ही कृष्ण को तलाशते रहते हैं और कंस जैसा व्यवहार करते रहते हैं…।
टीवी सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है… की तरह ही बातें जीवन मूल्यों के इर्द-गिर्द गढ़ी जाती हैं लेकिन रिश्तों का भोंडापन भी आख़िर छिप नहीं पाता। रिश्तों में लगातार ट्विस्ट आते रहते हैं। कभी अच्छी बॉन्डिंग देखने को मिलती है तो कभी ब्रेकअप जैसी ख़बरें आती रहती हैं। चकाचौंध भरे जीवन में कहानियों को गढ़ने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है। और दर्शक भी इसे कुछ सीखने के लिए नहीं देखते बल्कि टाइम पास का एक अच्छा ज़रिया मानकर वे टीवी स्क्रीन के सामने बैठना भी नहीं भूलते। पर्दे पर भी जीवन का खोखलापन भले ही साफ़ नज़र आए लेकिन चकाचौंध आँखों को बंद कर व्यक्ति को अंधा बना देती है।और कभी भी कोई यह समझ नहीं पाता कि … ये रिश्ता क्या कहलाता है ?