किसानों के अरमानों पर पानी फेरेंगे यह बिल या जीतेंगे दिल …!
कौशल किशोर चतुर्वेदी
विपक्ष की आवाज दबाना आसान है…अपनों को मना पाना बहुत मुश्किल है, केन्द्रीय खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर के इस्तीफ़े ने यह साफ़ कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए निश्चित तौर से यह एक करारा झटका है। कहीं न कहीं यह किसानों के मुद्दे पर एनडीए के अंदर का मतभेद उजागर हुआ है, जो मनभेद में भी तब्दील हो सकता है। मूल मुद्दा यह है कि किसानों को समृद्ध करने के नाम पर लाए जा रहे कृषि बिल किसानों के अरमानों पर पानी फेरेंगे या किसानों का दिल जीतेंगे, इसको लेकर मोदी के तर्क अपनों को ही संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं। और 2024 आते-आते किसानों की क्या हालत होने वाली है, यह भी पूरी तरह से आशंकाओं से घिरा है। मोदी सरकार के यह कृषि बिल या तो किसानों को ज़मीन से आसमान पर पहुँचाने वाले साबित होंगे या फिर ज़मीन से नीचे रसातल में ले जाएंगे…और यह तय है कि किसान ही 2024 के लोक सभा चुनाव का निर्णायक मतदाता साबित होगा। कहीं न कहीं यह कृषि बिल ही या तो किसानों और मोदी सरकार के लिए रीढ़ की हड्डी साबित होंगे, जैसा कि केंद्र और भाजपा शासित राज्य सरकारों का दावा है या फिर यह बिल किसानों को पूरी तरह से बरबाद कर मौत के मुँह में धकेल देंगे जैसा कि आशंका किसान संगठन और किसान जता रहे हैं। वैसे किसान और किसान संगठनों की चिंता को निराधार नहीं माना जा सकता। किसानों की आत्महत्याओं के आँकड़े सरकारों के संरक्षण में भी ख़ूब फल-फूल रहे हैं , फिर तब क्या होगा जब निजी हाथ किसानों के गलों तक बेरोकटोक पहुँच जाएँगे।
जहाँ तक निजी मंडियों का सवाल है और जिस तरह इन्हें बढ़ावा देने के लिए मंडी टैक्स से रियायत दी गई है, उससे निश्चित तौर पर सरकारी मंडियों का भविष्य दाँव पर लग चुका है। मंडी कर्मचारियों और अधिकारियों की जद्दोजहद अब किसानों की कम और ख़ुद की आर्थिक सुरक्षा की चिंता पर ज़्यादा केंद्रित है। वजह साफ़ है कि जब भेदभाव खुलकर नज़र आ रहा है तब सरकारी मंडियों का अस्तित्व कैसे बच सकता है? जहाँ तक किसानों की बात है तो सरकार द्वारा पिछले 73 सालों से न्यूनतम समर्थन मूल्य , सब्सिडी, खाद, बीज की व्यवस्था करने के बाद भी जब देश का किसान दो वक़्त की रोटी और तन पर दो जोड़ी कपड़े के लिए तरस रहा है, फिर क्या निजी खरीददारों के बोली लगाने के बाद किसान की झोली खुशियों से भर पाएगी? जब सरकार किसानों की फसलों को पूरी तरह से समर्थन मूल्य पर नहीं ख़रीद पाई तब फिर क्या निजी व्यापारी किसानों की मंशा पर भारी नहीं पड़ेंगे? वैसे तो अभी भी कुछ मामले ऐसे सामने आ रहे हैं कि निजी व्यापारियों ने किसानों को फ़सलों की अच्छी क़ीमत देने के सपने दिखाकर उनकी फ़सल ख़रीद ली लेकिन किसानों को उनका पैसा नहीं मिला और वे न्याय के लिए दर- दर भटक रहे हैं। भले ही सरकार 30 दिन में न्याय दिलाने की बात कर रही है लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है।इसमें भी क़ानूनी प्रावधान और दाँव पेंच किसानों को महीनों भटकने के लिए मजबूर कर देंगे, तब तक किसान पूरी तरह से टूट जाएगा और मजबूरी में मौत की राह भी पकड़ सकता है।निजी व्यापारियों के मामले में जो सबसे बड़ी समस्या सामने आने वाली है वह किसानों के लुटकर बर्बाद होने की ही है …। जिसको लेकर ही शायद हरसिमरत कौर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केंद्र सरकार के तर्कों से सहमत नहीं दिखाई दे रही है।अच्छा तो यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा किसानों की क़िस्मत खोल दे और किसान मज़बूत हो जाएँ, उनकी आय दोगुनी हो जाए और गुमराह करने वाली ताक़तों के गाल पर करारा तमाचा पड़े। पर मोदीजी के दावे कितना खरा साबित हो पाएंगे…यही चिंता हरसिमरत कौर की है और किसानों और किसान संगठनों की भी है।
आशंकाएँ सच साबित होती हैं तो न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों के लिए एक सपना बन जाएगा। निजी व्यापारी अलग-अलग तरीक़ों से किसानों को ठगते नज़र आएंगे।कॉरपोरेट सेक्टर तरक़्क़ी करेगा और किसान घुट-घुट कर मरने को मजबूर होगा।
व्यापारियों की नीतियाँ स्वकेंद्रित होती हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। और दमड़ी के बल पर ही गरीबों की चमड़ी सनातन काल से उधेड़ी जाती रही है। व्यापारियों की कुटिल चालों को भारत ने ही सदियों तक भोगा है।इंग्लैंड से व्यापारी भारत आए थे और कंपनी बनाकर आए थे, उसके बाद भारत के राजा, भारत की प्रजा, भारत के किसान, मज़दूर सभी ग़ुलामी भागने को मजबूर हुए थे। इस लंबी ग़ुलामी से सोने की चिड़िया कहलाने वाला हमारा देश किस दुर्दशा का शिकार हुआ था, यह जगज़ाहिर है। आजाद भारत में भी आदिवासी क्षेत्रों में व्यापारी, सूदखोर पहुँचे और आदिवासियों की दुर्दशा भी किसी से छिपी नहीं है।
अब आजाद भारत में केंद्र सरकार जिस आत्मनिर्भर भारत की कल्पना कर रही है, उसकी सफलता समृद्ध किसानों और कृषि मज़दूरों के मज़बूत कंधों से ही संभव है। पर सरकार की नीति कैसी भी हो लेकिन कृषि बिलों की नियति किसानों के कंधों को मज़बूत करने वाली आशा नहीं जगा पा रही है। हालाँकि देश को प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार की सोच पर ही चलना है, उनके फैसलों से चाहे देश आहत हुआ हो या ख़ुश हुआ हो पर बदलाव की गुंजाइश पहले भी कम रही है और अब भी नज़र नहीं आ रही है। ऐसे में यह साफ़ है कि समय ही यह तय करेगा कि किसानों के साथ न्याय हुआ या किसानों को सरकार की सोच के चलते घुटनों पर आने को मजबूर होना पड़ेगा। यह तीन कृषि बिल ही मोदी सरकार की तीसरी पारी पर या तो मुहर लगाएंगे या फिर सत्ता से बाहर का रास्ता भी दिखा सकते हैं।किसानों के दिल टूटेंगे तो सरकारों के भविष्य भी दाव पर लगेंगे और यदि सरकार के दावे किसानों का भाग्य बदल पाए तो निश्चित तौर पर सरकारों के भाग्य भी चमकते रहेंगे।