किसान सकारात्मक हो मानेंगे बात … या सरकार नकारात्मक हो करेगी आघात …!
कौशल किशोर चतुर्वेदी
केंद्र सरकार और किसान संगठनों के बीच बैठकों का दौर जारी है लेकिन बात बन नहीं पा रही है। किसानों का हठ है कि तीनों कृषि क़ानून रद्द किए जाएं तो केंद्र सरकार का मानना है कि जिन बिन्दुओं पर संशय हैं उन पर बातचीत हो और सरकार संशोधन के ज़रिये किसानों को संतुष्ट करने पर सहमति बनाने को राज़ी है। मोदी नीत सरकार में अब तक यह नौबत नहीं आयी है कि कोई फ़ैसला लिया गया हो और सरकार ने दबाव में फ़ैसला वापस ले लिया हो।जहाँ तक किसानों की दिल्ली घेरने की चेतावनी की बात हो तो इस तरह की नादानी शायद किसानों को भारी पड़ सकती है। तानाशाही तो हमेशा सिर्फ़ सरकारों की ही चली है, सरकार के सामने जनता ने तानाशाही पूर्ण तरीक़े से पेश आने की जब-जब कोशिश की है…तब-तब उसे मुँह की ही खानी पड़ी है। वर्ष 2010 में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल का उदाहरण ही ले लें। किसानों ने राजधानी की घेराबंदी की थी। कई दिन तक राजधानी किसानों की बंधक बन गई थी। सरकार ने बात भी की थी, समाधान का भरोसा भी दिलाया था लेकिन अचानक पुलिस और प्रशासन सक्रिय हुआ और किसानों को मुँह की खानी पड़ी थी और लाठी के दम पर ही किसानों की हठ पर सरकार ने निरंकुशता के साथ जीत हासिल कर ली थी। दिल्ली में भी अगर किसानों ने घेराबंदी की कोशिश की तब दिल्ली के बार्डर पर हज़ारों की संख्या में जमा हुए किसानों का नज़ारा भी 2010 के भोपाल में जमे किसानों की दुर्दशा से अलग नहीं होगा। पुलिस प्रशासन को जब फ़्री हैंड मिलता है तब वह जनता या किसानों को नाकों चने चबवाने में देर नहीं लगाते। दिल्ली में किसानों के जमावड़े और सरकारी रवैये में डर इतना ही है कि जनहानि न हो।अगर किसान उग्र होता है तो दिल्ली में जिस तरह के हालात हैं उसमें बलप्रयोग होने पर जनहानि की आशंका बलवती होती जा रही है।यह देश के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा और किसानों के लिए भी अफ़सोस जनक होगा तो सरकार भी ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाएगी।
किसानों की माँग है कि केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए तीनों क़ानून किसान विरोधी हैं। इन कानूनों को रद्द करने के अलावा किसान कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। केंद्र सरकार का मानना है कि क़ानूनों में वहाँ संशोधन को सरकार तैयार है जहाँ किसानों को लग रहा है कि क़ानून से नुक़सान है। पर सरकार क़ानून रद्द करने की माँग स्वीकार करने को राज़ी नहीं है। अब यह लड़ाई शेर और बकरी के जैसी हो गई है। यहाँ पर भी शेर सरकार है और किसानों की स्थिति बकरी के जैसी है। जब तक बातचीत जारी है तब तक ही किसान के पास ख़ैर मनाने का विकल्प है। जब सरकार ने मुँह फेरा तो मानो खैर नहीं रहेगी। बकरी कितना भी मिमियाए कि शेर उसकी जान लेकर ग़लत कर रहा है लेकिन जंगल के राजा की सेहत पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।ठीक ऐसी ही स्थिति फ़िलहाल किसानों और केंद्र सरकार के बीच हो गई है। किसानों के सम्मान में सरकार बात करने को तैयार हुई है तो यह भी नहीं माना जा सकता वह पूरी तरह से समर्पण कर अपने फैसलों पर पूरी तरह से सवालिया निशान लगाने का मौक़ा देश या देश के किसानों को देगी। नोट बंदी और जीएसटी जैसे फ़ैसले देश के सामने हैं, पर सरकार ने ख़ुद को सही साबित किया और पहले से ज़्यादा सीटें जीतकर भाजपा ने केंद्र में वापसी भी की। ऐसे में अगर किसान सोच रहे हैं कि क़ानून रद्द होंगे तो शायद वह ग़लत भी साबित हो सकते हैं और इसका खामियाजा भी उन्हें उठाना पड़ सकता है। किसान चाहे पंजाब, हरियाणा का हो या उत्तरप्रदेश, बिहार का, गुजरात का हो या पश्चिम बंगाल का और कश्मीर का हो या तमिलनाडु का …सरकारों की सेहत पर इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। किसानों के पास एक ही विकल्प है कि वे सरकार के सुर में सुर मिलाने के लिए सकारात्मक रवैया अपनाने को मजबूरी में भी तैयार रहें वरना सरकार नकारात्मक रवैया अपनाते हुए किसानों को बलपूर्वक हटाने और दमन करने के लिए आघात करने पर मजबूर होने को तैयार है।
किसानों के मुताबिक़ पहले कृषि कानून के तहत केंद्र सरकार “एक देश, एक कृषि मार्किट” बनाने की बात कह रही है। पैन कार्ड धारक कोई भी व्यक्ति, कम्पनी, सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह पर खरीद सकते हैं। किसानों का माल खरीदने वाले पैन कार्ड धारक व्यक्ति, कम्पनी या सुपर मार्केट को 3 दिन के अंदर किसानों के माल की पेमेंट करनी होगी। सामान खरीदने वाले व्यक्ति या कम्पनी और किसान के बीच विवाद होने पर एसडीएम इसका समाधान करेंगे। समाधान के लिए 30 दिन का समय दिया जाएगा, अगर बातचीत से समाधान नहीं हुआ तो एसडीएम द्वारा मामले की सुनवाई की जाएगी। फिर अपील और फिर 30 दिन में समाधान का प्रावधान। पर कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता।
दूसरे क़ानून के तहत आलू, प्याज़, दलहन, तिलहन व तेल के भंडारण पर लगी रोक को हटा लिया गया है। अब समझने की बात यह है कि हमारे देश में 85% लघु किसान हैं, किसानों के पास लंबे समय तक भंडारण की व्यवस्था नहीं होती है यानि यह क़ानून बड़ी कम्पनियों द्वारा कृषि उत्पादों की कालाबाज़ारी के लिए लाया गया है, ये कम्पनियाँ एवम सुपर मार्किट अपने बड़े-बड़े गोदामों में कृषि उत्पादों का भंडारण करेंगे एवम बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगे।
तीसरा क़ानून सरकार द्वारा कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के विषय पर लागू किया गया है।इसके तहत कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाएगा जिसमें बड़ी- बड़ी कम्पनियाँ खेती करेंगी एवम किसान उसमें सिर्फ मजदूरी करेंगे। इस नए अध्यादेश के तहत किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर बन के रह जायेगा। इस अध्यादेश के जरिये केंद्र सरकार कृषि का पश्चिमी मॉडल हमारे किसानों पर थोपना चाहती है।
- तीन कृषि कानूनों को लेकर देश के किसान के मन में कुछ इसी तरह की आशंकाएं हैं।तो केंद्र सरकार का कहना है कि इन 3 कृषि अध्यादेशों से किसानों के लिए फ्री मार्किट की व्यवस्था बनाई जाएगी जिससे किसानों को लाभ होगा। पर किसानों के विरोध के बाद यदि केंद्र सरकार संशोधन के लिए राज़ी हुई है तो मतलब साफ़ है कहीं न कहीं कानूनों में खामियां हैं। कहीं न कहीं सरकार को यह मालूम है कि किसानों के लिए खेती को लाभ का धंधा बनाना उसके लिए संभव नहीं है इसलिए किसानों को खुले बाज़ार के हवाले कर दिया जाए। ताकि बाद में किसानों की बर्बादी पर मातम मनाने का ठेका भी किसानों के हिस्से में चला जाए। सरकार किसानों के मामलों से पूरी तरह से पल्ला झाड़ लेगी और समय समय पर व्यापारियों पर शिकंजा कस किसानों की सहानुभूति हासिल करती रहेगी।