बेहतर अभिनय की चुनौती से जूझती राजनीति और रंगमंच …
कौशल किशोर चतुर्वेदी
मध्य प्रदेश में उपचुनाव की तारीख़ तय होने के बाद अब चुनावी रंगमंच के पर्दे की तरफ़ दर्शकों की निगाहें टकटकी लगाए हैं। लोकतंत्र के इस अनूठे रण में अब मतदाता किसका वरण करते हैं, वह परिणाम तो मायने रखते हैं लेकिन इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण यदि कुछ है तो वह यह कि रंगमंच के इस रुपहले परदे पर कौन पात्र कितनी बेहतर अदाकारी कर मतदाता रूपी दर्शकों का दिल जीतने में सफल हो पाता है।इसे राम-रावण युद्ध की संज्ञा दें या फिर महाभारत युद्ध का तमग़ा, इससे कोई ख़ास फ़र्क पढ़ने वाला नहीं है। नैतिकता- अनैतिकता की बातें लोकतंत्र में जंग खा चुकी हैं। नैतिकता-अनैतिकता के मंचन में भी वाहवाही तो एक्टिंग ही लूटती है। रामानंद सागर के रामायण सीरियल की बात करें तो रावण और मेघनाथ की भूमिका में क्रमश: अरविंद त्रिवेदी और विजय अरोड़ा के अभिनय की तारीफ़ हर कोई करता है। बीआर चोपड़ा निर्मित महाभारत सीरियल में भीष्म पितामह की भूमिका में मुकेश खन्ना और कर्ण की भूमिका में पंकज धीर का अभिनय आज भी सराहा जाता है। रंगमंच पर अभिनय ही महत्व रखता है। हो सकता है कि नायक का अभिनय खलनायक के अभिनय से कमज़ोर पड़े और खलनायक ही दर्शकों का दिल जीतकर नायक पर बाजी मार ले।
मध्य प्रदेश में होने वाले उपचुनाव भी अब रंगमंच के इसी फंडे पर आगे बढ़ रहे हैं। कलाकार की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती। वह सिर्फ़ अपनी भूमिका को जीवंत बनाकर अपने अभिनय का परचम फहराता है। इसी तरह मध्य प्रदेश में होने वाले उपचुनावों में विचारधारा की बात अब बेमानी साबित हो रही है। वही चेहरे अब रंगमंच के इस रुपहले पर्दे पर बदली हुई भूमिकाओं में नज़र आने वाले हैं। कल तक जो दूसरी विचारधारा का दम भर रहे थे, आज उसी विचारधारा के विरोध में एक सशक्त अभिनय करने की चुनौती को जीवंत बनाने में जुटे हैं। अक्टूबर महीने की 31 दिन का समय है और इससे पहले तक कांग्रेस विचारधारा को जीने वाले जन प्रतिनिधियों के सामने चुनौती है कि उन्हें कांग्रेस विचारधारा का विरोध करना है और भाजपा की विचारधारा में खुद को बेहतर साबित कर दिखाना है। तो दूसरे खेमे में भी इसी तरह की चुनौती जीने के लिए कई चेहरे मैदान में हैं। जो ताउम्र भाजपा विचारधारा में बेहतर काम कर चुके हैं लेकिन अब कांग्रेस विचारधारा में खुद को बेहतर साबित करने के लिए अक्टूबर के 31 दिन तक चौबीस घंटे रणभूमि में मोर्चा संभालेंगे।
सुरखी विधानसभा उपचुनाव के रण में गोविंद सिंह राजपूत भाजपा का कमल थाम बाजी मारने का दावा करेंगे तो पारुल साहू कांग्रेस के पंजे पर खुद को खरा साबित करने का दम भरेंगी। 2013 विधानसभा चुनाव में दलों के समीकरण ठीक उलटे थे। पर यही दोनों चेहरे आमने-सामने थे।
सांवेर विधानसभा उपचुनाव में तुलसीराम सिलावट अब केसरिया रंग में रंगकर ख़ुशियाँ बटोरने की चाहत में हैं तो केसरिया को अलविदा कह पंजा थामे प्रेमचंद्र गुड्डू मैदान में उनके सामने हैं। मध्य प्रदेश में विधानसभा उपचुनाव के यह दो दृश्य महज बानगी हैं। लगभग ज़्यादातर सीटों पर कुछ ऐसे ही नज़ारे दिखने वाले हैं जिसमें भूमिकाओं में अदला बदली हुई है और नई भूमिकाओं में अपने अभिनय को चरितार्थ कर बाज़ी जीतने की चुनौती लोकतंत्र के कलाकारों के सामने हैं।
तीन नवंबर के पहले मतदाता रूपी दर्शक रंगमंच के पर्दे पर लोकतंत्र के कलाकारों का अभिनय पूरे ग़ौर से देखेंगे और अपना मन भी बना लेंगे कि किस अभिनेता ने कितना सशक्त अभिनय किया है और उनका दिल जीत लिया है। तीन नवंबर को उनका यही आकलन बेहतर अदाकारी के लिए अपनी मुहर लगाएगा और 10 नवंबर को फ़ैसला हो जाएगा कि मतदाताओं के दिल पर कौन अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ पाया है।
- वैसे तो राजनीति में दल बदल का खेल हमेशा चलता रहा है लेकिन मध्य प्रदेश के उपचुनावों की खासियत यह है कि एक दल से इस्तीफ़ा देकर दूसरे दल की सदस्यता लेकर चुनाव मैदान में क़िस्मत आज़माने का इससे बड़ा उदाहरण पहले कभी नहीं दिखा। 25 विधायकों ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थामा है। पहले दौर में 22 विधायकों ने इस्तीफा देकर कांग्रेस की सरकार गिराई है और भाजपा की सरकार बनाई है। अब भाजपा की सरकार को बने रहने के लिए इनका फिर से विधायक बनना भी ज़रूरी है।मंगल किस दल के लिए मंगलकारी साबित होता है और किस दल के लिए अमंगलकारी, यह नवंबर में साफ़ हो जाएगा। या मंगल के दिन किस-किस का अभिनय मतदाताओं के सिर चढ़कर बोलता है, इसके लिए मंगलवार को पढ़ने वाली 3 और 10 नवंबर की तारीख़ें महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाएँगी।
वैसे इन उपचुनावों का लुत्फ़ हम कुछ इस तरह भी उठा सकते हैं कि रामानन्द के रामायण सीरियल में अरविंद त्रिवेदी राम की भूमिका में और अरुण गोविल रावण की भूमिका में खुद के बेहतर अभिनय की छाप छोड़ने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं या फिर बीआर चोपड़ा के महाभारत में कृष्ण की भूमिका में पुनीत इस्सर और दुर्योधन की भूमिका में नीतीश भारद्वाज बेहतर अभिनय का तमग़ा हासिल करने के लिए पसीना बहा रहे हैं। अभिनय की दुनिया में कोई भी अभिनेता न तो किसी विशेष विचारधारा का ग़ुलाम है और न ही किसी ख़ास भूमिका का। जिसे जो भूमिका मिले, उसी में खुद को बेहतर साबित कर सके यही अभिनय का हुनर है। निश्चित तौर पर अभिनेता के साथ निर्माता-निर्देशकों की साख भी इसमें दाव पर है। यह बात ख़ास है कि निर्माता-निर्देशक भी विचारधारा, नैतिकता-अनैतिकता से परे सिर्फ़ सफलता के लिए संघर्षरत हैं। क्या आपको भी लगता है कि वर्तमान राजनीति और रंगमंच वर्तमान परिदृश्य में एक-दूसरे के पूरक नज़र आ रहे हैं ?